“आयुर्वेद मैं जठराग्नि ,धातु और मलों का महत्व “

digestive fire concept in ayurveda

लेखक –डॉ कविता व्यास (आयुर्वेदाचार्य)

आयुर्वेद में स्वास्थ्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि स्वास्थ्य का मतलब है –दोषों की साम्यता, अग्नि की साम्यता,धातुओं की साम्यता,

मलों की साम्यता तथा प्रसन्न इंद्रिय मन और आत्मा ही स्वास्थ्यहै।

अग्नि

स्वास्थ्य की उपरोक्त परिभाषा में अग्नि के महत्व को बताया गया है ,अग्नि आयुर्वेद के अनुसार १3 प्रकार की होती हैI उसमें से प्रमुख अग्नि है-

जठराग्नि बाकी पांच भूताग्नि तथा 7 धात्वाग्नि होती है।हम यहां पर जठराग्नि की ही बात करेंगे क्योंकि अन्य 12 प्रकार की अग्नियाँ शरीर में सूक्ष्म रूप से काम करती है।

जठराग्नि (digestive fire)- जो हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। अग्नि हमारे शरीर में पाचन एवं  चयापचय का महत्वपूर्ण कार्य करती है I  

अग्नि को एक तरह से पित्त का एक महत्वपूर्ण अंग कह  सकते हैं।

हमारा पित्तदोष शरीर में जठराग्नि के रूप में आमाशय में भोजन को  पचाने का काम करता हैI वह अम्लीय स्वभाव का होता है

जो हमारे भोजन को कई विभागों में विभक्त करता है। भोजन के पाचन की प्रक्रिया में वात दोष का भी अपना एक योगदान होता है वात दोष हमारे आमाशय के अंदर भोजन को घुमाने में सहयोग करता है।

हमारे हर ऊतकों [tissues] में भी  अग्नि उपस्थित होती है जो प्रत्येक ऊतक और प्रत्येक शरीर की कोशिका को पूर्ण तरह पोषण मिले इसका ध्यान रखती है और इसके कारण हमें स्वयं की व्याधिक्षमता बढ़ाने में सहायता मिलती है।

हमारी दीर्घायु भी अग्नि पर निर्भर करती है।  बुद्धि विवेक ज्ञान आदि भी अग्नि पर निर्भर रहते हैं Iहमारी त्वचा का रंग व तापमान भी अग्नि द्वारा ही तय किया जाता है।

जब तक हमारी जठराग्नि काम कर रही है तब तक हमारे भोजन का पूरी तर ह से पाचन होता रहता है और पोषक तत्वों को शरीर में पूरी तरह से सोख लिया जाता है।

जब दोषों में असंतुलन के कारण अग्नि पूरी तरह से प्रभावित होती है और जठराग्नि मंद होजाती है या अतितीव्र हो जाती है तो उससे हमारा शरीर का चयापचय प्रभावित होता है।

शरीर का व्याधीक्षमत्व कम हो जाता है  तथा भोजन जो पूरी तरह से पच नहीं पाता है वैसा आधा पचा हुआ भोजन शरीर में सोख लिया जाता है ,जिसके कारण अनेक प्रकार की बीमारियां शरीर में होती है।

इस आधे पचे हुए भोजन से शरीर में एक तत्व निकलता है जिसे हम आम बोलते हैंI  इस आम के कारण हमारे बड़ी आत में भी बिना बचा हुआ भोजन इकट्ठा हो जाता है जो कई प्रकार के हमारे शरीर की नलीयों को अवरोधित करता है तथा कब्ज भी पैदा करता है।

इस आम के कारण अनेक प्रकार के विषैले तत्व निकलते हैं जो हमारे रक्त में अवशोषित हो जाते हैं और कई प्रकार की बीमारियां पैदा करते हैं।

यह विषैले पदार्थ हमारे शरीर के कमजोर भागों पर आक्रमण करते हैं और शरीर में एक प्रकार की कमजोरी आती है तथा कई प्रकार की बीमारियां  जैसे आर्थराइटिस ,डायबिटीज ,हृदयरोग होने की संभावना होती है। 

   आयुर्वेद में कहा गया है कि अधिकांश बीमारियों की जड़ पेट से होती हैI इसका मतलब है कि अधिकांश बीमारियां हमारे जठराग्नि पर निर्भर करती हैI  

जठराग्नि थोड़ी भी प्रभावित हुई तो हमारे शरीर में खाने के बाद भारीपन ,पेट का फूलना कब्ज ,एसिडिटी आदि हमें होने लगता हैI जो आगे जा कर अनेक गंभीर बीमारियों का कारण बनता है।

अतः हमारा स्वास्थ्यहमारा व्याधिक्षमत्व ,हमारीबुद्धिविवेकज्ञान आदि सभी क्षमताएं जठराग्नि पर निर्भर करती हैं।

सप्तधातु [7 Vital Tissues] 

संस्कृत में धातु का अर्थ है जो धारण करें या जो शरीर को बनाए वह धातु कहलाती है। धातु शरीर के विभिन्न अंगों संस्थानों के भागों को बनाती है।

इस निर्माण कार्य के अतिरिक्त धातुओं का हमारे शरीर के विकास एवं पोषण में बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है। हमारे शरीर में सात प्रकार की धातुएं होती है -रस, रक्त , मांस, मेद, अस्थि ,मज्जा और शुक्र।

धातुएं हमारे शरीर की सुरक्षा के साथ-साथ अग्नि के साथ मिलकर हमारे  शरीर के व्याधिक्षमता को बनाए रखती हैं ,यदि धातुओं में कोई असंतुलन या विकार आता है तो यह शरीर के पोषण को भी प्रभावित करता है और शरीर के विकास को अवरोधित करता है।

रसधातु [plasma]

यह हमारे भोजन से प्राप्त पोषक तत्वों को सभी धातुओं तक पहुंचाने का काम करता है और कफ को इसधातु से उत्पन्न एक सहायक द्रव्य माना गया है।

रस धातु के कार्य-शरीर का निर्माण एवं पोषण करना रक्त का पोषण करना शरीर की सुरक्षा करना तथा शरीर में एक ऊर्जा और संतुष्टि प्रदान करना।

रक्तधातु [blood]

यह शरीर के सभी अंगों एवं ऊतकों में ऑक्सीजन तथा अन्य पोषक द्रव्य पहुंचाने का काम करती है,इसकी वजह से हमें जीवन मिलता है ,पित्त को इस धातु से उत्पन्न सहायक द्रव्य माना गया है।

रक्तधातु के कार्य -त्वचा को रंग देना, मांसपेशियों का पोषण, स्पर्शइंद्रियों को मजबूती प्रदान करना तथा हमारे शरीर की वृद्धि करना।

मांसधातु [Muscle]

यह शरीर के विभिन्न अंगों का लेपन करती है, जोड़ों की गति विधि के लिए सहायक होती है,  शरीर को मजबूती प्रदान करती है। कानों से निकलने वाले मोमसृदश्य पदार्थ को इस धातु से उत्पन्न सहायक द्रव्य माना गया है।

मांस धातु के कार्य-शरीर को पुष्टि प्रदान करना मेद धातु को पुष्टि प्रदान करना शरीर के अंगों को आवरण प्रदान करना तथा मलों का पोषण।

मेदधातु [Fat]

सभी धातुओं के अंदर  चिकनाई बनाए रखना। पसीने को इस धातु से उत्पन्न सहायक द्रव्य माना गया है।

मेद धातु के कार्य- अस्थियों का पोषण , शरीर में दृढता लाना, स्वेदकी उत्पत्ति तथा धातुओं में चिकनाई लाना।

अस्थि धातु  [Bone]

यह शरीर के निर्माण में एक ढांचा तैयार करने में मदद करती है।नाखूनों तथा बालों को इस धातु से उत्पन्न सहायक द्रव्य मना गया है।

अस्थि धातु के कार्य-मज्जा धातु का पोषण मांस धातु को ताकत देना तथा शरीर की आकृति बनाना।

मज्जा धातु [ Marrow and nerves ]

अस्थियों के अंदर के खाली स्थान को भरने तथा तंत्रिका तंत्र से उत्पन्न विभिन्न सम्वेदनाओं का वहन करने का काम यह धातु करती हैं।आंखों से उत्पन्न द्रव्य पदार्थ इस धातु से उत्पन्न सहायक द्रव्य माना गया है।

मज्जा धातु के कार्य-अस्थि धातु का पोषण तथा शुक्र धातु का पोषण।

शुक्र धातु [ Reproductive system ]

पुरुषों में इसे शुक्र एवं महिलाओं में इसे आर्तव माना गया है।यह सभी धातुओं के ऊतकों से मिलकर बनने वाली  धातु है जो हमारे शरीर में प्रजननक्षमता प्रदान करती  है। इस धातु से हमारे शरीर के ओज की उत्पत्ति होती है।

शुक्र धातु के कार्य-गर्भ की उत्पत्ति ,शुक्राणुओं की उत्पत्ति ,शरीर के बल की उत्पत्ति, तथा क्रियाशीलता एवं रचनात्मकता बनाए रखना।

  हम इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि जैसे ही हम भोजन ग्रहण करते हैं ,भोजन से उत्पन्न आहार रस, से रस धातु का निर्माण होता है फिर उत्तरोत्तर रस से रक्त, रक्त से माँस, माँस से मेद, मेद से अस्थी, अस्थी से मज्जा ,मज्जा से शुक्रधातु का निर्माण होता है। ऐसा माना गया है कि 7 दिनो मे आहार रस शुक्र धातु बन जाता है।

मल [ Waste products ]

हमारे शरीर में तीन प्रकार के मल उत्पन्न होते हैं

1.गुदा के द्वार से निकलने वाला मल ,[ Feces]

2.मूत्र के मार्ग से निकलनेवाला मूत्र तथा [ Urine ]

3.त्वचा से निकलने वाला स्वेद यानि पसीना। [ Sweat;]

इन मलों की उत्पत्ति तथा शरीर से निकलने का हमारे शरीर के स्वास्थ्य में बहुत महत्वपूर्ण योगदान है। मल एवं मूत्र पूरी तरह से अनुपयोगी पदार्थ नहीं कहे जा सकते क्योंकि मल एवं मूत्र का उनके संस्थानों यानि पाचन संस्थान तथा मूत्रवह संस्थान के कार्य करने में बहुत महत्वपूर्ण योगदान होता है।

1.मल ,[ Feces]

यह हमारी आंतों को बल प्रदान करता है हमारे शरीर के भोजन के पचने के पश्चात, उपयोगी त्तव छोटी आँत अवशोषित कर लेती है, जो बचा हुआ पदार्थ है वह मल है।

इसमे भी ऐसे बहुत सारे पदार्थ बचे हुए रहते हैं जो शरीर के लिए उपयोगी हो सकते हैं और उन्हें एक बार पुनः बड़ी आंत में अवशोषित किया जाता है,।

यह मल हमारी बड़ी आँत को शक्तिप्रदान करता है यदि किसी व्यक्ति के शरीर में मल बिल्कुल ना हो तो उसकी बड़ी आंत पूरी तरह से चिपक जाएगी।

2.मूत्र [ Urine]

मूत्र हमारे शरीर से पानी नमक तथा अन्य अनुपयोगी द्रव्यों को निकालता है पर मूत्र हमारे शरीर में पानी की उचित मात्रा बनाए रखने में तथा इलेक्ट्रोलाइट की उचित मात्रा बनाए रखने में सहयोग करता है।

इस मुत्र की कार्यशीलता निर्भर करती है, हमारे पानी के पीने की मात्रा, हमारे भोजन , हमारे वातावरण का तापमान तथा हमारी मानसिक एवं शारीरिक स्थिति पर।

      यदि हमारा शरीर सही मात्रा में पानी को मूत्र द्वार से बाहर नहीं भेजेगा तो रक्त में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी और उस वजह  से रक्त नलिकाओं का प्रेशर बढ़ने से हमें उच्चरक्तचाप होने की संभावना रहती हैI

इस प्रकार मूत्र हमारे शरीर के विभिन्न द्रवों तथा रक्तचाप में संतुलन बनाए रखता है।

आयुर्वेद में मनुष्य के मूत्र में  औषधीय गुण होते हैं ,इसका वर्णन किया गया है। बहुत से लोग स्वमूत्र चिकित्सा पर विश्वास भी करते हैं और कुछ लोगों ने इसका प्रयोग कर परिणाम भी प्राप्त किए हैं।

3.पसीना या स्वेद [Sweat]

शरीर में मेद धातु से पसीने की उत्पत्ति होती है। हमारा पसीना हमारे शरीर के तापमान को बनाए रखता है, पसीने के कारण ही हमारे त्वचा में एक मृदुता बनी रहती है तथा त्वचा के जो खुले हुए छेद हैं उनमें आवागमन होता है। पसीने से त्वचा में एक खिंचाव बना रहता है।

पसीने तथा हमारे शरीर  की किडनी में एक संबंध होता है क्योंकि किडनी भी हमारे शरीर से बचा हुआ नमक आदि अनुपयोगी द्रव्य बाहर निकलती है और पसीने से भी हमारे शरीर से अनुपयोगी तत्तव बाहर जाता है।

गर्मियों के जब पसीना बहुत ज्यादा आता है,उस समय हमारे मूत्र की मात्रा कम होती है और सर्दियों में जब हमें पसीना कम आता है तो हमारे मूत्र की मात्रा बढ़ जाती है।

इस प्रकार पसीने एवं मूत्र में एक संतुलन बना रहता है यदि यह संतुलन बिगड़ता है तो शरीर में डायबिटीज ,सोरियासिस तथा अनेक प्रकार के रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।

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